वो अँधेरे जो मुंजमिद से थे
दफ़अतन आज जगमगाए हैं
नूर बरसे न क्यूँ शबिस्ताँ में
एक मुद्दत में आप आए हैं
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ये चमेली की अध-खिली कलियाँ
ना-मुरादी के तुंद तूफ़ाँ में
जब कभी आलम-ए-तसव्वुर में
रंग-अफ़्शाँ हो जिस तरह उमीद
तेरी फ़ितरत सुकूँ-पसंदी है
आरज़ू है कि अब मिरी हस्ती
ज़िंदगी इस तरह भटकती है
शौक़-ओ-अरमाँ की बे-क़रारी को
फिर किसी बात का ख़याल आया
चेहरा-ए-आफ़ाक़ को देती है नूर
एक मुद्दत सितम उठाने पर