शम्-ए-ज़र्रीं की नर्म लौ ऐ दोस्त
जब अँधेरे में जगमगाती है
जाने क्यूँ ग़म-ज़दा तख़य्युल को
तेरी आवाज़ याद आती है
Parveen Shakir
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अपनी फ़ितरत पे नाज़ है मुझ को
है कुछ ऐसी ही बरहमी ऐ दिल
और कुछ दैर अभी ठहर जाओ
जब कभी आलम-ए-तसव्वुर में
ज़िंदगी इस तरह भटकती है
शौक़-ओ-अरमाँ की बे-क़रारी को
पर-फ़िशाँ है थका थका सा ख़याल
हाए ये सादगी ओ पुरकारी
दिल पे लगते हैं सैकड़ों नश्तर
दिन ये बदलेगा रात बदलेगी
हाल-ए-दिल तुम से आज कहता हूँ