चेहरा-ए-आफ़ाक़ को देती है नूर
महर-ए-आलम-ताब की ताबिंदगी
मेरे दिल को बख़्शती है इक सकूँ
'नक़्श' ये पिछले पहर की चाँदनी
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और कुछ दैर अभी ठहर जाओ
एक मुद्दत सितम उठाने पर
ज़िंदगी इस तरह भटकती है
शौक़-ओ-अरमाँ की बे-क़रारी को
है कुछ ऐसी ही बरहमी ऐ दिल
अपनी फ़ितरत पे नाज़ है मुझ को
शम्-ए-ज़र्रीं की नर्म लौ ऐ दोस्त
तेरी फ़ितरत सुकूँ-पसंदी है
वो अँधेरे जो मुंजमिद से थे
आरज़ू है कि अब मिरी हस्ती
दिल पे लगते हैं सैकड़ों नश्तर