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तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले - ख़्वाजा मीर 'दर्द' कविता - Darsaal

तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले

तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले

जिस लिए आए थे सो हम कर चले

ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है!

हम तो इस जीने के हाथों मर चले

क्या हमें काम इन गुलों से ऐ सबा

एक दम आए इधर, ऊधर चले

दोस्तो! देखा तमाशा याँ का सब

तुम रहो ख़ुश हम तो अपने घर चले

आह! बस मत जी जला तब जानिए

जब कोई अफ़्सूँ तिरा उस पर चले

एक मैं दिल-रीश हूँ वैसा ही दोस्त

ज़ख़्म कितनों के सुना है भर चले

शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में

चश्म-तर आए थे दामन-तर चले

ढूँढते हैं आप से उस को परे

शैख़ साहिब छोड़ घर, बाहर चले

हम न जाने पाए बाहर आप से

वो ही आड़े आ गया जीधर चले

हम जहाँ में आए थे तन्हा वले

साथ अपने अब उसे ले कर चले

जूँ शरर ऐ हस्ती-ए-बे-बूद याँ

बारे हम भी अपनी बारी भर चले

साक़िया! याँ लग रहा है चल-चलाव

जब तलक बस चल सके, साग़र चले

'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब

किस तरफ़ से आए थे कीधर चले

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