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मिरा जी है जब तक तिरी जुस्तुजू है - ख़्वाजा मीर 'दर्द' कविता - Darsaal

मिरा जी है जब तक तिरी जुस्तुजू है

मिरा जी है जब तक तिरी जुस्तुजू है

ज़बाँ जब तलक है यही गुफ़्तुगू है

ख़ुदा जाने क्या होगा अंजाम इस का

मैं बे-सब्र इतना हूँ वो तुंद-ख़ू है

तमन्ना तिरी है अगर है तमन्ना

तिरी आरज़ू है अगर आरज़ू है

किया सैर सब हम ने गुलज़ार-ए-दुनिया

गुल-ए-दोस्ती में अजब रंग-ओ-बू है

ग़नीमत है ये दीद व दीद-ए-याराँ

जहाँ आँख मुँद गई न मैं हूँ न तू है

नज़र मेरे दिल की पड़ी 'दर्द' किस पर

जिधर देखता हूँ वही रू-ब-रू है

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