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चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम - ख़्वाजा मीर 'दर्द' कविता - Darsaal

चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम

चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम

बहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम

अरक़ की बूँद उस की ज़ुल्फ़ से रुख़्सार पर टपकी

तअज्जुब की है जागह ये पड़ी ख़ुर्शीद पर शबनम

हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया

इधर गुल फाड़ते थे जैब रोती थी उधर शबनम

करे है कुछ से कुछ तासीर-ए-सोहबत साफ़ तबओं की

हुई आतिश से गुल की बैठते रश्क-ए-शरर शबनम

भला टुक सुब्ह होने दो इसे भी देख लेवेंगे

किसी आशिक़ के रोने से नहीं रखती ख़बर शबनम

नहीं अस्बाब कुछ लाज़िम सुबुकसारों के उठने को

गई उड़ देखते अपने बग़ैर-अज़-बाल-ओ-पर शबनम

न पाया जो गया इस बाग़ से हरगिज़ सुराग़ उस का

न पलटी फिर सबा ईधर न फिर आई नज़र शबनम

न समझा 'दर्द' हम ने भेद याँ की शादी ओ ग़म का

सहर ख़ंदाँ है क्यूँ रोती है किस को याद कर शबनम

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