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बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं - ख़्वाजा मीर 'दर्द' कविता - Darsaal

बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं

बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं

गर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं

दरिया-ए-मअरिफ़त के देखा तो हम हैं साहिल

गर वार हैं तो हम हैं और पार हैं तो हम हैं

वाबस्ता है हमीं से गर जब्र है ओ गर क़द्र

मजबूर हैं तो हम हैं मुख़्तार हैं तो हम हैं

तेरा ही हुस्न जग में हर-चंद मौजज़न है

तिस पर भी तिश्ना-काम-ए-दीदार हैं तो हम हैं

अल्फ़ाज़-ए-ख़ल्क़ हम बिन सब मोहमिलात से थे

मअनी की तरह रब्त-ए-गुफ़्तार हैं तो हम हैं

औरों से तो गिरानी यक-लख़्त उठ गई है

ऐ 'दर्द' अपने दिल के गर बार हैं तो हम हैं

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