काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
एक दर्द-ए-मुदाम बाक़ी है
सज्दे करता हूँ उठ के पिछले पहर
इश्क़ का एहतिराम बाक़ी है
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दर्द का जाम ले के जीते हैं
तू मिरे साथ अब नहीं है दोस्त
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं
गुलों का, नग़्मों का, ख़्वाबों का चाँदनी का सलाम
ज़िंदगी की हसीन शहज़ादी
हम फ़क़ीरों की बात क्यूँ पूछो
आसमाँ की बुलंदियों से नदीम
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
आरज़ू के दिए जलाने से
तुम घटाओं का एहतिमाम करो