इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
अपने दर्द के सूरज से ताबिंदा हैं
ढलती रात के तारे हैं हम सहरा में
सच पूछो तो ख़ुद से भी शर्मिंदा हैं
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दिल-जलों को सताने आए हैं
ऐ ग़म-ए-दोस्त, हम ने तेरे लिए
हम फ़क़ीरों की बात क्यूँ पूछो
मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
गुलों का, नग़्मों का, ख़्वाबों का चाँदनी का सलाम
न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं
दर्द का जाम ले के जीते हैं
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
ज़िंदगी की हसीन शहज़ादी
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं