हम फ़क़ीरों की बात क्यूँ पूछो
रोज़ मरते हैं, रोज़ जीते हैं
इक नया ज़ख़्म दिन को मिलता है
इक नया ज़ख़्म शब को सीते हैं
Gulzar
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Rahat Indori
Wasi Shah
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
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न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं
तू मिरे साथ अब नहीं है दोस्त
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं
ऐ ग़म-ए-दोस्त, हम ने तेरे लिए
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
आरज़ू के दिए जलाने से
ज़िंदगी की हसीन शहज़ादी
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
आ कि बज़्म-ए-तरब सजा लें हम
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
तुम घटाओं का एहतिमाम करो