बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं
तुम्हारे शहर की गलियाँ उदास लगती हैं
वो दर्द-मंद निगाहें, जो छिन गईं मुझ से
कभी कभी तो मुझे आस-पास लगती हैं
Mir Taqi Mir
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आसमाँ की बुलंदियों से नदीम
दर्द का जाम ले के जीते हैं
ऐ ग़म-ए-दोस्त, हम ने तेरे लिए
आ कि बज़्म-ए-तरब सजा लें हम
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
सख़्त-जाँ भी हैं और नाज़ुक भी
ज़िंदगी की हसीन शहज़ादी
हम फ़क़ीरों की बात क्यूँ पूछो
गुलों का, नग़्मों का, ख़्वाबों का चाँदनी का सलाम