आरज़ू के दिए जलाने से
ये अँधेरे तो कम नहीं होंगे
कब ज़माने में ग़म नहीं थे दोस्त
कम ज़माने में ग़म नहीं होंगे
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
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Parveen Shakir
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तुम घटाओं का एहतिमाम करो
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं
दर्द का जाम ले के जीते हैं
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
गुलों का, नग़्मों का, ख़्वाबों का चाँदनी का सलाम
सख़्त-जाँ भी हैं और नाज़ुक भी
ज़िंदगी की हसीन शहज़ादी
न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं