सख़्त-जाँ भी हैं और नाज़ुक भी
तुम्हारी याद के उजड़े हुए, उदास चमन
आरज़ू के दिए जलाने से
आसमाँ की बुलंदियों से नदीम
तुम घटाओं का एहतिमाम करो
तू मिरे साथ अब नहीं है दोस्त
दर्द का जाम ले के जीते हैं
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं
इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं