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ऐ लाहौर - जीलानी कामरान कविता - Darsaal

ऐ लाहौर

तिरे दरख़्तों की टहनियों पर बहार उतरे

तिरी गुज़रगाहें नेक राहों की मंज़िलें हों

मिरा ज़माना नए नए मौसमों की ख़ुश्बू

तिरे शब-ओ-रोज़ की महक हो

ज़मीन पर जब भी रात फैले

किरन जो ज़ुल्मत को रौशनी दे तिरी किरन हो

परिंदे उड़ते हुए परिंदे

हज़ार सम्तों से तेरे बाग़ों में चहचहाएँ

वो रात जिस की सहर नहीं है

वो तेरे शहरों से तेरे क़स्बों से दूर गुज़रे

वो हाथ जो अज़्मतों के हिज्जे मिटा रहा है

वो हाथ लौह-ओ-क़लम के शजरे से टूट जाए

कलस पे लफ़्ज़ों के फूल बरसें

तिरी फ़सीलों के बुर्ज दुनिया में जगमगाएँ

अकेले-पन की सज़ा में दिन काटते हज़ारों

तिरी ज़ियारत-गहों की बख़्शिश से ताज़ा-दम हों

तिरे मुक़द्दर की बादशाहत ज़मीं पे निखरे

नए ज़माने की इब्तिदा तेरे नाम से हो

ख़ुशी के चेहरे पे वस्ल का अब्र तैर जाए

तमाम दुनिया में तज़्किरे तेरे फैल जाएँ

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