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वो हातिफ़ की ज़बान में कलाम करने लगी - जवाज़ जाफ़री कविता - Darsaal

वो हातिफ़ की ज़बान में कलाम करने लगी

एक शाम

उस ने मुझे अपनी पनाह-गाह से बाहर निकाला

और अपने सरसब्ज़ बाज़ुओं के शहतूत से

कश्ती तय्यार की

कश्ती जिस ने सब से पहले

दूसरा किनारा ईजाद किया था

आसमान पर चाँद

आधी मसाफ़त तय कर चुका

तो वो मुझे अपनी नई कश्ती में बिठा कर

समुंदर की तह में उतरने लगी

जहाँ उस ने

अपने ख़्वाब छुपा रक्खे थे

अगली शाम

वो मुझे एरोज़न के मा'बद में मिली

जिस के चारों ओर

सियाह जंगल की बाढ़ थी

उस मा'बद को सारा रोम

उम्मीद-भरी नज़रों से देखता था

मैं

हातिफ़ के ग़ैब-दानों के लिए

भुना हवा गोश्त

खुशबू-दार मसाले

रोग़नियात

और

ज़ैतून की ताज़ा शाख़ थामे

मुक़द्दस अहाते में

पनाह-गुज़ीं हवा

उसे देख कर

हातिफ़ की ज़ियारत-गाह की दीवार

शक़ हो गई

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