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हर-सम्त ताज़गी सी झरनों की नग़्मगी से कितनी - जाफ़र रज़ा कविता - Darsaal

हर-सम्त ताज़गी सी झरनों की नग़्मगी से कितनी

हर-सम्त ताज़गी सी झरनों की नग़्मगी से कितनी

मुशाबहत है साक़ी तिरी हँसी से

क्या जाने कितने फ़ित्ने उठते हैं कज-रवी से

वो शख़्स यूँ ब-ज़ाहिर मिलता है सादगी से

अक्सर ग़ज़ल हुई है कुछ ऐसी जाँ-कनी से

जैसे ग़ज़ाल देखे सहरा में बेबसी से

इक मर्द‌‌‌‌-ए-बा-सफ़ा ने लिखा लहू से अपने

इज़्ज़त की मौत बेहतर ज़िल्लत की ज़िंदगी से

सदियों तलक रही है तहज़ीब की निगहबाँ

पत्थर तराशते थे कुछ लोग शाइ'री से

अब आदमी बने हैं इक दूसरे के साइल

अब आदमी गुरेज़ाँ रहता है आदमी से

शोख़ी-ओ-बज़्ला-संजी दोशीज़गी वही है

मासूमियत गई बस एहसास-ए-आगही से

जब हो ग़रज़ तो मलिए वर्ना खिंचे से रहिए

हम तंग आ चुके हैं इस शानदर-ए-दिलबरी से

'जाफ़र'-रज़ा तुम अब तक अच्छे-भले थे लेकिन

मिट्टी ख़राब कर ली क्यूँ तुम ने शाइ'री से

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