सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
कम नहीं शोरिश-ए-जिगर फिर भी
मेरी आँखों के रू-ब-रू है तू
ढूँढती है तुझे नज़र फिर भी
Allama Iqbal
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इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
रात जब भीग के लहराती है
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
अपने आईना-ए-तमन्ना में