इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने जज़्बात की हसीं तफ़्सीर
किस मोहब्बत से तक रही है मुझे
दूर रक्खी हुई तिरी तस्वीर
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आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
अपने आईना-ए-तमन्ना में