अपने आईना-ए-तमन्ना में
अब भी मुझ को सँवारती है तू
मैं बहुत दूर जा चुका लेकिन
मुझ को अब तक पुकारती है तू
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तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
चंद लम्हों को तेरे आने से
रात जब भीग के लहराती है
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
तितली कोई बे-तरह भटक कर
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
एक कम-सिन हसीन लड़की का