इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
इक ज़रा रसमसा के सोते में
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
तितली कोई बे-तरह भटक कर
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
अपने आईना-ए-तमन्ना में
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम