याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
एक कम-सिन हसीन लड़की का
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
इक ज़रा रसमसा के सोते में
रात जब भीग के लहराती है
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
चंद लम्हों को तेरे आने से
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर