दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
अपने आईना-ए-तमन्ना में
इक ज़रा रसमसा के सोते में
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें