सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
तितली कोई बे-तरह भटक कर
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
अपने आईना-ए-तमन्ना में
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
रात जब भीग के लहराती है
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
हाए ये तेरे हिज्र का आलम