सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
तितली कोई बे-तरह भटक कर
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
चंद लम्हों को तेरे आने से
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
अपने आईना-ए-तमन्ना में
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'