हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
चंद लम्हों को तेरे आने से
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
एक कम-सिन हसीन लड़की का
रात जब भीग के लहराती है
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
हाए ये तेरे हिज्र का आलम