आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
तितली कोई बे-तरह भटक कर
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर