इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
इक ज़रा रसमसा के सोते में
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
रात जब भीग के लहराती है
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
अपने आईना-ए-तमन्ना में
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी