तितली कोई बे-तरह भटक कर
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
एक कम-सिन हसीन लड़की का
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
चंद लम्हों को तेरे आने से
इक ज़रा रसमसा के सोते में
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा