इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
इक ज़रा रसमसा के सोते में
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
रात जब भीग के लहराती है
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा