इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
एक कम-सिन हसीन लड़की का
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
रात जब भीग के लहराती है
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
तितली कोई बे-तरह भटक कर
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से