दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
रात जब भीग के लहराती है
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
इक ज़रा रसमसा के सोते में
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
अपने आईना-ए-तमन्ना में