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ऊँट - इस्माइल मेरठी कविता - Darsaal

ऊँट

लक़्क़-ओ-दक़ सहरा में या मैदान में

या अरब के गर्म रेगिस्तान में

साया-अफ़गन है न वाँ कोई चटान

सर्द पानी का न दरिया का निशान

चिलचिलाती धूप है और चुप हवा

वाँ परिंदा भी नहीं पर मारता

तू वहाँ के मरहले करता है तय

दिन-ब-दिन और हफ़्ता हफ़्ता पय-ब-पय

क़ीमती अश्या हैं तेरी पुश्त पर

ताजिरों का रेशम और शाहों का ज़र

तोदा तोदा तेरे ऊपर लद रहा

है भरा गोया जहाज़-ए-पुर-बहा

चंद हफ़्ते जब कि जाते हैं गुज़र

और थका देता है राकिब को सफ़र

ऊँट! घबराता नहीं तू बार से

देखता है उस की जानिब प्यार से

गोया कहता है कि ऐ मेरे सवार

एक दिन तू और भी हिम्मत न हार

हाँ न बे-दिल हो न रस्ते में ठिठक

साफ़ सर-चश्मा है आगे धर लपक

मुझ को आती है हवा से बू-ए-आब

ना-उमीदी से न कर तू इज़्तिराब

ऊँट तू करता है उस की रहबरी

यूँ बना देता है राकिब को जरी

आख़िरश मंज़िल पे पहुँचाता है तू

और सूखे ख़ार-ओ-ख़स खाता है तू

सब्र से करता है तय राह-ए-दराज़

सच कहा है तू है ख़ुश्की का जहाज़

अल-ग़रज़ तू है हलीम ओ ख़ुश-ख़िसाल

तर्बियत में छोटे बच्चों की मिसाल

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