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क़ौस-ए-क़ुज़ह - इस्माइल मेरठी कविता - Darsaal

क़ौस-ए-क़ुज़ह

थी शाम क़रीब और दहक़ाँ

मैदाँ में था गल्ले का निगहबाँ

देखी उस ने कमान नागाह

जो करती है मेंह से हम को आगाह

रंगत में उसे अजीब पाया

ज़ाहिर में बहुत क़रीब पाया

पहले से वो सुन चुका था अक्सर

है क़ौस में इक पियाला-ए-ज़र

मशहूर बहुत है ये कहानी

अफ़्साना-तराश की ज़बानी

मिलती है जहाँ कमाँ ज़मीं से

मिलता है वो जाम-ए-ज़र वहीं से

सोचा लो जाम और बनू जम

छोड़ो बुज़ू गो सफंद का ग़म

बेहूदा गंवार इस गुमाँ पर

सीधा गया तीर सा कमाँ पर

दिन घटने लगा क़दम बढ़ाया

उम्मीद कि अब ख़ज़ाना पाया

जितनी कोशिश ज़ियादा-तर की

उतनी ही कमाँ परे को सरकी

पिन्हाँ हुई क़ौस आख़िर-ए-कार

और ज़ुल्मत-ए-शब हुई नुमूदार

नाकाम फिर वो सादा दहक़ाँ

हसरत-ज़दा ग़म-ज़दा पशेमाँ

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