मुलम्मा की अँगूठी
चाँदी की अँगूठी पे जो सोने का चढ़ा झोल
ओछी थी लगी बोलने इतरा के बड़ा बोल
ऐ देखने वालो तुम्ही इंसाफ़ से कहना
चाँदी की अँगूठी भी है कुछ गहनों में गहना
वो और है मैं और ये ज़िल्लत न सहूँगी
मैं क़ौम की ऊँची हूँ बड़ा मेरा घराना
वो ज़ात की घटिया है नहीं उस का ठिकाना
मेरी सी कहाँ चाशनी मेरा सा कहाँ रंग
वो मोल में और तोल में मेरे नहीं पासँग
मेरी सी चमक उस में न मेरी सी दमक है
चाँदी है कि है राँग मुझे इस में भी शक है
ये सुनते ही चाँदी की अँगूठी भी गई जल
अल्लाह-रे मुलम्मे की अँगूठी तेरे छल-बल
सोने की मुलम्मे पे न इतरा मेरी प्यारी
दो दिन में भड़क उस की उतर जाएगी सारी
कुछ देर हक़ीक़त को छुपाया भी तो फिर क्या
झूटों ने जो सच्चों को चढ़ाया भी तो फिर क्या
मत भूल कभी असल तू अपनी अरी अहमक़
जब ताव दिया जाएगा हो जाएगा मुँह फ़क़
सच्चे की तो इज़्ज़त ही बढ़ेगी जो करें जाँच
मशहूर मसल है कि नहीं साँच को कुछ आँच
खोने को खरा बन के निखरना नहीं अच्छा
छोटे को बड़ा बन के उभरना नहीं अच्छा
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