यारब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ भी न रहे
और दिल में ख़याल-ए-मा-सिवा भी न रहे
रह जाए तो सिर्फ़ बे-निशानी बाक़ी
जो वहम में है सो वो ख़ुदा भी न रहे
Rahat Indori
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चौपाए की तरह तू किताबों से न लद
है इश्क़ से हुस्न की सफ़ाई ज़ाहिर
मुलम्मा की अँगूठी
जिस दर्जा हो मुश्किलात की तुग़्यानी
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
बंदा हूँ तो इक ख़ुदा बनाऊँ अपना
दुनिया को न तू क़िबला-ए-हाजात समझ
अफ़्सुर्दगी और गर्म-जोशी भी ग़लत
मजमूआ-ए-ख़ार-ओ-गुल है ज़ेब-ए-गुलज़ार
कैफ़ियत-ओ-ज़ौक़ और ज़िक्र-ओ-औराद
ये क़ौल किसी बुज़ुर्ग का सच्चा है
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो