ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
अपनी ख़बर, न उस का पता है, ये इश्क़ है
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है