इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
आज बाम-ए-हर्फ़ पर इम्कान भर मैं भी तो हूँ
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है