अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
आज बाम-ए-हर्फ़ पर इम्कान भर मैं भी तो हूँ
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है