ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है
इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है
ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है
आज बाम-ए-हर्फ़ पर इम्कान भर मैं भी तो हूँ
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है