ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है
अपनी ख़बर, न उस का पता है, ये इश्क़ है
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है
आज बाम-ए-हर्फ़ पर इम्कान भर मैं भी तो हूँ