इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
अपनी ख़बर, न उस का पता है, ये इश्क़ है
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है