अपनी ख़बर, न उस का पता है, ये इश्क़ है
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
आज बाम-ए-हर्फ़ पर इम्कान भर मैं भी तो हूँ
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
अजब है रंग-ए-चमन जा-ब-जा उदासी है
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा