ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
अजब है रंग-ए-चमन जा-ब-जा उदासी है
अपनी ख़बर, न उस का पता है, ये इश्क़ है
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है