जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
आज बाम-ए-हर्फ़ पर इम्कान भर मैं भी तो हूँ
अजब है रंग-ए-चमन जा-ब-जा उदासी है