कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा

कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा

हज़ार ज़ख़्म सहे और दिल बड़ा रक्खा

चराग़ यूँ तो सर-ए-ताक़-ए-दिल कई थे मगर

तुम्हारी लौ को हमेशा ज़रा जुदा रक्खा

ख़िरद से पूछा जुनूँ का मोआ'मला क्या है

जुनूँ के आगे ख़िरद का मोआ'मला रक्खा

ख़याल रूह के आराम से हटाया नहीं

जो ख़ाक था सो उसे ख़ाक में मिला रक्खा

हज़ार शुक्र तिरा ऐ मिरे ख़ुदा-ए-जुनूँ

कि मुझ को राह-ए-ख़िरद से गुरेज़-पा रक्खा

छपा हुआ नहीं तुझ से दिल-ए-तबाह का हाल

ये कम नहीं कि तिरे रंज को बचा रक्खा

वो एक ज़ुल्फ़ कि लिपटी रही रग-ए-जाँ से

वो इक नज़र कि हमें जिस ने मुब्तला रक्खा

बस एक आन में गुज़रा मैं किस तग़य्युर से

किसी ने सर पे तवज्जोह से हाथ क्या रक्खा

सुनाई अपनी कहानी बड़े सलीक़े से

कहीं कहीं पे फ़साने में वाक़िआ' रक्खा

सुना जो शोर कि वो शीशा-गर कमाल का है

तो हम लपक के गए और क़ल्ब जा रक्खा

मैं जानता था कि दुनिया जो है वो है ही नहीं

सो ख़ुद को ख़्वाहिश-ए-दुनिया से मावरा रक्खा

मिरे जुनूँ ने किए रद्द वजूद और अदम

अलग ही तरह से होने का सिलसिला रक्खा

ख़ुशी सी किस ने हमेशा मलाल में रक्खी

ख़ुशी में किस ने हमेशा मलाल सा रक्खा

कभी न होने दिया ताक़-ए-दिल को बे-रौनक़

चराग़ एक बुझा और दूसरा रक्खा

निगाह-दार मिरा था मिरे सिवा न कोई

सो अपनी ज़ात पे पहरा बहुत कड़ा रक्खा

तू पास था तो रहे महव देखने में तुझे

विसाल को भी तिरे हिज्र पर उठा रक्खा

तिरा जमाल तो तुझ पर कभी खुलेगा नहीं

हमारे बा'द बता आइने में क्या रक्खा

हर एक शब था यही तेरे ख़ुश-गुमान का हाल

दिया बुझाया नहीं और दर खुला रक्खा

हमीं पे फ़ाश किए राज़-हा-ए-हर्फ़-ओ-सुख़न

तो फिर हमें ही तमाशा सा क्यूँ बना रक्खा

मिला था एक यही दिल हमें भी आप को भी

सो हम ने इश्क़ रखा आप ने ख़ुदा रक्खा

ख़िज़ाँ थी और ख़िज़ाँ सी ख़िज़ाँ ख़ुदा की पनाह

तिरा ख़याल था जिस ने हरा-भरा रक्खा

जो ना-गहाँ कभी इज़्न-ए-सफ़र हुआ 'इरफ़ान'

तो फ़िक्र कैसी कि सामान है बँधा रक्खा

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