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जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है - इरफ़ान सत्तार कविता - Darsaal

जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है

जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है

ये यादगार-ए-यार-ए-कम-आमेज़ मुझ में है

सैराब कुंज-ए-ज़ात को रखती है मुस्तक़िल

बहती हुई जो रंज की कारेज़ मुझ में है

कासा है एक फ़िक्र से मुझ में भरा हुआ

और इक पियाला दर्द से लब-रेज़ मुझ में है

ये कर्ब-ए-राएगानी-ए-इम्काँ भी है मगर

तेरा भी इक ख़याल-ए-दिल-आवेज़ मुझ में है

ताज़ा खिले हुए हैं ये गुलहा-ए-ज़ख़्म-ए-रंग

हर आन एक मौसम-ए-ख़ूँ-रेज़ मुझ में है

रखती है मेरी तब्-ए-रवाँ बाब-ए-हर्फ़ में

ये मुस्तक़िल जो दर्द की महमेज़ मुझ में है

अब तक हरा-भरा है किसी याद का शजर

'इरफ़ान'! एक ख़ित्ता-ए-ज़रख़ेज़ मुझ में है

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