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इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है - इरफ़ान सत्तार कविता - Darsaal

इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है

इधर कुछ दिन से दिल की बेकली कम हो गई है

तिरी ख़्वाहिश अभी है तो सही कम हो गई है

नज़र धुँदला रही है या मनाज़िर बुझ रहे हैं

अँधेरा बढ़ गया या रौशनी कम हो गई है

तिरा होना तो है बस एक सूरत का इज़ाफ़ा

तिरे होने से क्या तेरी कमी कम हो गई है

ख़मोशी को जुनूँ से दस्त-बरादारी न समझो

तजस्सुस बढ़ गया है सर-कशी कम हो गई है

तिरा रब्त अपने गिर्द-ओ-पेश से इतना ज़ियादा

तो क्या ख़्वाबों से अब वाबस्तगी कम हो गई है

सर-ए-ताक़-ए-तमन्ना बुझ गई है शम-ए-उमीद

उदासी बढ़ गई है बे-दिली कम हो गई है

सभी ज़िंदा हैं और सब की तरह मैं भी हूँ ज़िंदा

मगर जैसे कहीं से ज़िंदगी कम हो गई है

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