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रस्म-ए-उल्फ़त से है मक़्सूद-ए-वफ़ा हो कि न हो - इरफ़ान अहमद मीर कविता - Darsaal

रस्म-ए-उल्फ़त से है मक़्सूद-ए-वफ़ा हो कि न हो

रस्म-ए-उल्फ़त से है मक़्सूद-ए-वफ़ा हो कि न हो

ज़ख़्म-ए-दिल और हो ख़ून-बस्ता-ए-शिफ़ा हो कि न हो

हम जफ़ाकार-ए-वफ़ा हैं हमें मतलूब नहीं

हासिल ज़ुल्फ़-ए-सियाहकार सज़ा हो कि न हो

रख लिया थोड़ा सा इम्कान-ए-तमन्ना ने भरम

दस्त शर्मिंदा रहे चाहे अता हो कि न हो

हो मेरे क़त्ल में क़ातिल की भी मर्ज़ी शामिल

शोर-ओ-ग़ुल ख़ूब रहे आह-ओ-बक़ा हो कि न हो

थी सितमकारी क़िस्मत की वो शिद्दत हमदम

तू भी रंजीदा रहा मुझ से गिला हो कि न हो

इक ये बंदिश रही अंजाम-ए-वफ़ा को को कर

अहल-ए-दुनिया पे मेरी रस्म रवा हो कि न हो

बस ये आशोब मोहब्बत की दवा है 'बालिग़'

मर्ग-ए-आसान की तमन्ना हो क़ज़ा हो कि न हो

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