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पाबंद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही रहे गो दर्द-ए-दहिंदाँ और सही - इरफ़ान अहमद मीर कविता - Darsaal

पाबंद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही रहे गो दर्द-ए-दहिंदाँ और सही

पाबंद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही रहे गो दर्द-ए-दहिंदाँ और सही

अश्कों की रवानी थम न सकी आँखों के थे अरमाँ और सही

आदाब-ए-चमन अंजाम तो दे गुल से न हटा तितली को सबा

उल्फ़त की हया महफ़ूज़ रहे गो तुझ में हों तूफ़ाँ और सही

हो सई-ए-करम ग़ैरों पे अगर अपनों पे मज़ाक़-ए-आम न हो

हम राह में हैं ठोकर ही तो दे मंज़िल के हों शायाँ और सही

इस दश्त-ए-वफ़ा में क़ैस भी है और शैख़ भी है मुश्ताक़-ए-मिलन

जो वस्ल नहीं तो क्या ग़म है कुछ लम्हे इबाराँ और सही

इक गुल जो गिरा बरनाई में बुलबुल को यही अफ़सोस रहा

मशग़ूल रहा ग़म-ख़्वारी में हों फ़स्ल-ए-बहाराँ और सही

अंदाज़-ए-सबा से वाक़िफ़ हूँ और रब्त-ए-बहर से भी बालिग़

रुख़ मोड़ के चलना जीना है ख़्वाह उस के हों पायाँ और सही

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