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न मैं हाल-ए-दिल से ग़ाफ़िल न हूँ अश्क-बार अब तक - इरफ़ान अहमद मीर कविता - Darsaal

न मैं हाल-ए-दिल से ग़ाफ़िल न हूँ अश्क-बार अब तक

न मैं हाल-ए-दिल से ग़ाफ़िल न हूँ अश्क-बार अब तक

मिरी बेबसी पे भी है मुझे इख़्तियार अब तक

मिरे बाग़-ए-दिल पे आख़िर ये बहार भी सितम है

जो गुलाब हम ने बोए वो हैं ख़ार-दार अब तक

कोई आस मुझ को रोके तिरी जुस्तुजू से काफ़िर

मैं अगरचे हो चुका था कभी शर्मसार अब तक

ये नसीब ही नहीं था कि मैं अपना हाल जी लूँ

मैं हूँ अपनी ख़स्तगी का ख़ुदी सोगवार अब तक

जो बहाए चंद क़तरे जो सजाए कुछ तबस्सुम

मुझे ऐसी इक ख़ुशी का रहा इंतिज़ार अब तक

ये अजीब दास्ताँ है मिरे बे-नियाज़ दिल की

जो उसे समझ न पाया है उसी से प्यार अब तक

मैं किसी के अश्क पोछूँ तो वो ग़म-गुसार मेरा

ये समझ के दर्द ढोया मैं ने बार बार अब तक

मैं किसे कहूँ ऐ 'बालिग़' मिरा ग़म-नवाज़ तू है

मिरी बेकसी का किस को हुआ ए'तिबार अब तक

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